Monday 26 August 2013

॥ देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ॥

॥ ॐ तत् सवितुर्वरेण्यं ॥
॥ ॐ श्री गुरवे नमः ॥

~~~ देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ~~~
      ______________________
***************************

न मंत्रं नो यंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
      परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणं      ॥१॥

    हे माते ! मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, और
स्तुतिकथा आदि के माध्यम से उपासना कैसे की जाती
है, मैं नहीं जानता । मुद्रा तथा विलाप आदि के प्रयोग 
से तुम्हारा पूजन कैसे करूँ, यह भी मैं नहीं जानता ।
हे माता, मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि तुम्हारा 
अनुसरण समस्त क्लेशों का हरण करता है । ॥१॥

विधेरज्ञानेन        द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव  चरणयोर्या च्युतिरभूत्‌    ।
तदेतत्क्शन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे 
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥२॥

विधिपूर्वक पूजन कैसे किया जाता है, इसका ज्ञान न 
होने से, धन के अभाव से, तथा आलस्यवश, तुम्हारे
चरणों की आराधना करने में यदि मुझसे कोई त्रुटि 
हुई हो, तो हे सब का उद्धार करनेवाली शिवे ! तुम 
मुझे क्षमा करना, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह  तो संभव
है, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।  ॥२॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
परं तेषां मध्ये विरलतरोऽहं  तव  सुतः           ।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥३॥
  
हे माँ, धरती पर विचरण करनेवाले तुम्हारे सरल 
पुत्र तो बहुत से होंगे, किन्तु मैं उनसे भिन्न प्रकृति 
का तुम्हारा पुत्र हूँ । हे शिवे ! फिर भी तुम मुझे त्याग 
दो, यह उचित न होगा, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह तो 
संभव है, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।  ॥३॥ 

जगन्मातस्तव  चरणसेवा  न  रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया        ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे 
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥४॥

हे जगज्जननि ! मैंने कभी तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं
की, और न ही हे देवि !, मैंने कभी तुम्हें धन आदि अर्पित
किया, तथापि तुम मुझ पर अत्यंत अप्रतिम स्नेह रखती
हो, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह तो संभव है, किन्तु माता
कभी कुमाता नहीं हो सकती । ॥४॥ 

परित्यक्ता देवा विविधविधि सेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि        ।
इदानीं चेन्मातस्तव कृपानापि भविता
     निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणं   ॥५॥

हे गणेशजननि ! मेरी आयु के पचासी वर्ष व्यतीत
हो चुके हैं, विविध देवताओं की आराधना की विविध
विधियों से व्याकुल होकर मैंने उन सबको छोड़ दिया,
और अब यदि तुम्हारी कृपा भी मुझ पर न हुई, तो
मैं किसकी शरण जाऊँगा ?  ॥५॥

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः  ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
    जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ   ॥६॥

हे अपर्णा ! माता, तुम्हारे मन्त्राक्षर कानों में पड़ने
मात्र से चाण्डाल मधुर रस से भरी सुन्दर वाणी 
बोलने लगता है, रंक भी वैभवशाली होकर निर्भय
विचरण करने लग जाता है । यदि तुम्हारा नाम
सुनने भर से ही ऐसा हो जाता है, तो विधिपूर्वक 
जो इसका जप करता है, उसे इसका क्या फल 
प्राप्त होता है, कौन जान सकता है ?  ॥६॥
  
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी  कण्ठे  भुजगपतिहारी   पशुपतिः   ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
    भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्‌   ॥७॥




हे भवानी ! चिता की भस्म रमानेवाले, विष का 
सेवन करनेवाले दिगम्बर, सिर पर जटा, कण्ठ में
भुजंगमाला और कपालमाला धारण करनेवाले 
पशुपति (भगवान्‌ शंकर), भूतेश्वर को जगदीश्वर 
की जो पदवी प्राप्त हुई है, वह तुम्हारे साथ उनके
विवाह का ही तो फल है ! ॥७॥


न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभवाञ्छापि च न मे 
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै 
    मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः  ॥८॥



हे चन्द्रमुखि ! मुझे न तो मोक्ष-प्राप्ति की आकाँक्षा 
है, न सांसारिक वैभव की वाञ्छा, मुझे न तो विज्ञान
की अपेक्षा है, और न सुख आदि की प्राप्ति की ही 
इच्छा, हे माता ! मैं तो तुमसे केवल यही याचना 
करता हूँ कि मेरा सारा जीवन मृडानी, रुद्राणी, एवं 
शिव-शिव, भवानी आदि जपते हुए व्यतीत हो ॥८॥  


नाराधीतासि    विधिना    विविधोपचरैः
     किं   रुक्षचिन्तनपरैर्न   कृतं    वचोभिः       ।
श्यामे  त्वमेव  यदि  किञ्चन  मय्यनाथे
    धत्से      कृपामुचितमम्ब    परं  तवैव     ॥९॥



मैंने कभी तुम्हारी (एकोपचार, षोडशोपचार आदि)
शास्त्र-निर्दिष्ट विविध उपचारों से युक्त आराधना नहीं 
की, इतना ही नहीं, इसके विपरीत मैंने चिन्तनपरक,
रुक्ष बुद्धि से क्या क्या अनर्गल विचार तक नहीं किये ?
हे श्यामा ! इसलिये यदि तुम ही मुझ अनाथ पर कृपा
करो तो यह सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि तुम मेरी माता 
हो । ॥९॥



आपत्सु   मग्नः   स्मरणं   त्वदीयं
    करोमि   दुर्गे    करुणार्णवेशि   ।
नैतच्छठत्वं   मम   भावयेथाह् 
    क्षुधातृषार्ता जननीं  स्मरन्ति                  ॥१०॥


हे दुर्गे ! जब भी मैं विपत्तिग्रस्त होता हूँ, तो तुम्हारा
ही स्मरण करने लगता हूँ, इसे तुम मेरी शठता मत
समझना, माता तुम करुणासागर हो, क्योंकि क्षुधा 
और प्यास से आकुल बालक माता का ही तो स्मरण करते हैं । ॥१०॥




जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।
अपराधपरम्परावृतं  न  हि  माता समुपेक्षते सुतं  ॥११॥



हे जगन्माता ! मुझ पर तुम्हारी पूर्ण कृपा है, तो 
इसमें आश्चर्य क्या है ? क्योंकि माता दुष्ट प्रवृत्ति 
रखनेवाले बालक को भी नहीं त्यागती । ॥११॥




मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ॥१२॥



हे माँ !! न तो मेरे समान कोई और पापी है, 
और न ही तुम्हारे तुल्य पापनाश करनेवाली 
कोई और । यह जानकर हे महादेवि, जो तुम्हें 
उचित प्रतीत होता हो, वही करो । ॥१२॥ 




॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ॥

॥हरिः ॐ तत्सत्॥

No comments:

Post a Comment